आयुर्वेद के अनुसार भोजन तथा खानपान की जानकारी – आयुर्वेद जीवन शैली

प्रायः शरीर में असंतुलन या बीमारी का कारण खान-पान की गलत आदत होता है, हालाँकि हमने अपनी वेबसाइट पर आयुर्वेदिक जीवन शैली के आवश्यक तत्त्वों के बारे में बताया है | आयुर्वेद के अनुसार भोजन रस और मौसम आदि को ध्यान में रखते हुए बनाया जाता है, अगर आयुर्वेदिक के आधारशील सिद्धांत का पालन न किया जाए तो कई बीमारियाँ आपको घेर सकती है।

आयुर्वेद के अनुसार भोजन बनाते तथा भोजन करते समय आपको जिन बातों की ओर ध्यान देने की आवश्यकता है, उनमें से प्रमुख एवं कुछ सरल बातें नीचे गिनाई जा रही हैं। इनसे आपको आयुर्वेदिक भोजन तथा उनकी पाक-कला विधि की जानकारी मिल सकेगी।

आयुर्वेद के अनुसार भोजन सात्त्विक आहार :

आयुर्वेद के अनुसार भोजन तथा खानपान की जानकारी ayurved ke anusar khana kahne vidhi
आयुर्वेद के अनुसार भोजन
  • आयुर्वेद के अनुसार भोजन तीन प्रकार के होते हैं- सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक। आज यहाँ हम केवल सात्त्विक आहार के विषय में ही बतायेंगे |
  • प्रत्येक भोजन में कई सब्जियाँ, फल, अन्न, जड़ी-बूटियाँ, मसाले तथा अन्य खाद्यों को शामिल कीजिए।
  • आयुर्वेद के अनुसार भोजन में प्रकृति ने ऋतु विशेष में जो फल एवं सब्जियाँ दी हैं, उनका प्रयोग करने का प्रयास कीजिए। यदि आप अधिक घूमते हैं और एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं तो जहाँ जाएँ, वहाँ पैदा होने वाली वस्तुएँ खाइए और स्थानीय भोजन व्यवस्था अपनाइए।
  • आयुर्वेद के अनुसार भोजन हमेशा सात्त्विक ही करना चाहिए। सात्त्विक आहार में मुख्य रूप से दूध तथा उससे बने पदार्थ (घी, मक्खन), चावल, तिल, फल, फलों का रस और सभी प्रकार के मीठे पदार्थ शामिल हैं। सात्विक आहार के महंगा होने की जरूरत नहीं है, परंतु उसमें नियंत्रित मात्रा में पानी के साथ छहों स्वादों का संतुलन, ताजगी एवं हलकापन होना चाहिए। ऐसा भोजन अच्छा स्वास्थ्य तथा लंबी आयु प्राप्त करने में मन तथा शरीर के लिए स्वास्थ्यकर होता है।
  • आयुर्वेद के अनुसार भोजन में छ प्रबल (रस) होते हैं जो प्रभावित हैं। ये छ: रस हैं- मधुर (मीठा), तीखा (काटु), कटू (चरपरा), अम्ल (खट्टा), लवण (नमक युक्त), कशाया (कसैला)। भोज्य पदार्थ जिनमें प्रबल मधुर रस होता है वो शरीर के लिए काफी उपयोगी और पोषक होते हैं (जैसे – अनाज, दालें, दूध और शहद)।
  • दैनिक आहार में सामान्य भोजन, जैसे-चावल, सब्जियाँ, फल, दूध आदि लेना सबसे अच्छा रहता है। कई बीमारियों, मोटापा तथा हृदय रोगों में भी सात्त्विक आहार लेने की सलाह दी जाती है। बीमारियाँ होने का सबसे बड़ा कारण गलत भोजन तथा दूषित पानी पीना है |
  • दूध : युवाओं तथा वयस्कों के लिए दूध अति उपयोगी है। आयुर्वेद के अनुसार भोजन में गाय का दूध सबसे अच्छा होता है, क्योंकि वह सात्त्विक होता है।
  • दूध में एक-चौथाई पानी मिलाकर उबालना चाहिए। ठंडे मौसम में गरम दूध तथा गरम मौसम में ठंडा या हलका गरम दूध लेना चाहिए।
  • रेफ्रिजरेटर में रखे हुए दूध को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए तथा दूध में उसके विरोधी तत्त्ववाले पदार्थ-खट्टा, नमकीन तथा तीखा–नहीं मिलाने चाहिए, क्योंकि इससे गंभीर प्रतिक्रियाएँ, शरीर में एलर्जी, खुजली की बीमारियाँ हो सकती हैं। संग्रहणी रोग (पाचक रोग) में तथा अमावाले व्यक्ति को इसका सेवन वर्जित है। कफ प्रकृति के लोगों को अच्छी तरह पतला किया गया दूध कम मात्रा में लेना चाहिए। दूध में मीठे फल तथा अन्न मिलाए जा सकते हैं। दूध तन तथा मन के अच्छे स्वास्थ्य को प्रेरित करता है, शरीर को शक्तिशाली बनाता है और मन को शांत रखता है। ऐसे लोगों के लिए मक्खन और क्रीम अच्छा होता है। उसमें सेंधा नमक या अदरक मिलाया जा सकता है। ठंडे मौसम में उसे लेने से पहले गरम कर लेना चाहिए, परंतु गरम मौसम में गुलाबजल के साथ मट्ठा या लस्सी के रूप में लिया जा सकता है। यह पित्त प्रकृति के लोगों के लिए सर्वोत्तम पेय है। लस्सी को थोड़ी इलायची तथा चीनी मिलाकर लिया जा सकता है। यह हमारे शरीर को गरम तथा संतुलित रखती है।
  • भोजन तैयार करते समय सभी रसों का सम्मिलन होना चाहिए और किसी स्वाद-विशेष की प्रधानता नहीं होनी चाहिए। यह करने के लिए थोड़ा-सा ध्यान देना भर काफी है। उदाहरण के लिए, सिरके का प्रयोग करके जो खट्टा सलाद तैयार किया जाए उसमें कुछ गुड़ अथवा एक चम्मच शहद डालने से काम चल जाएगा। सिरके के रस की प्रधानता समाप्त करने के लिए प्याज का प्रयोग किया जा सकता है।
  • प्रायः खाने में तीखे रस का अभाव रहता है इसलिए खाने में सब्जी या सलाद के रूप में यह रस रहना चाहिए या फिर मसाले के प्रयोग से भोजन को तीखा बना लें।
  • सुबह का भोजन 8-9 बजे (8-9 A.M.) तक हो जाना चाहिए. 10 बजे (10 A.M.) के बाद भोजन न लें. दोपहर का भोजन 12-2 (12:00- 2:00 P.M.) बजे के बीच ले लीजिए. क्योंकि यह पित्त का काल है इसलिए यह दिन का सबसे बड़ा, भारी भोजन होना चाहिए. रात्रि का भोजन 6-8 बजे(6:00-8:00 P.M.)के बीच कर लीजिए और यह हल्का और सुपाच्य ही होना चाहिए. रात्रि 9 बजे के बाद भोजन बिल्कुल न लें |
  • भोजन केएक ग्रास को 32 बार चबाना चाहिए |
  • आयुर्वेद के अनुसार सुबह का खाना सबसे ज्यादा लाभदायक होता है | इसलिए नाश्ते का पोष्टिक होना बहुत जरुरी है |
  • सर्दियों में रातें लम्बी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन लम्बे होने के कारण शाम का भोजन जल्दी कर लेना उचित है।

आयुर्वेद के अनुसार भोजन करने के नियम

  • भोजन करने का आयुर्वेदिक तरीका बहुत महत्त्वपूर्ण है। भोजन गरम तथा ताजा होना चाहिए। भोजन करने का समय भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह लार तथा गैस्ट्रिक रसों के द्वारा मस्तिष्क और शरीर को संकेत भेजता है। भोजन का अंतिम परिणाम ओजस है। गंध, दृष्टि, स्पर्श तथा श्रवण उच्च स्तर पर संकेत भेजते हैं।
  • भोजन करते समय व्यक्ति को शांत तथा तनाव रहित होना चाहिए। भोजन की मेज पर किसी प्रकार की बाधा पाचन पर बुरा प्रभाव डालती है। इससे अच्छा पौष्टिक भोजन भी शरीर के लिए हानिकारक हो जाता है।
  • भोजन से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए नीचे 15 महत्त्वपूर्ण नियम दिए गए हैं। आयुर्वेद के अनुसार भोजन के इन नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए:
  • बैठकर भोजन करें।
  • शांत वातावरण में भोजन करें।
  • भूख महसूस होने पर ही भोजन करें।
  • भोजन करते समय बातचीत न करें।
  • आराम से खाएँ—न तो अधिक धीमा और न अधिक तेज।
  • एक निश्चित समय पर ही भोजन करें।
  • ताजे खाद्य पदार्थ ही आहार में लें।
  • भोजन छह स्वादवाला होना चाहिए।
  • जल्दबाजी में या उत्तेजना में न खाएँ।
  • भोजन अच्छी तरह पका हुआ होना चाहिए।
  • बासी और गरिष्ठ भोजन से परहेज करें।
  • भोजन के साथ या भोजन के बाद थोडा सा हलका गरम पानी पीएँ।
  • भूख का केवल तीन-चौथाई ही खाएँ तथा जल्द पाचन के लिए एक चौथाई पेट खाली रखें।
  • भोजन के बाद मट्ठा पीएँ।
  • भोजन के बाद कुछ देर के लिए बैठे, ताकि भोजन अच्छी तरह बैठ सके। उसके बाद टहले
  • आयुर्वेद के अनुसार भोजन में जल्दबाजी, चिंता, चिड़चिड़ाहट तथा उत्तेजना पाचन को बाधित करते हैं। गरम पानी या हलका गरम पानी पाचन में मददगार होता है। दिन में दूध का और रात में दही का सेवन आयुर्वेद में वर्जित है।
  • भूख लगने पर ही खाएँ। समय पर भोजन करें।
  • लापरवाही से और जबरदस्ती न खाएँ।
  • नियमित अंतरालों पर खाएँ।
  • हो सके तो पद्मासन में बैठकर भोजन करें।
  • शांत वातावरण में भोजन करें।
  • दोपहर के भोजन तथा रात के भोजन के बीच कुछ नहीं लेना चाहिए।
  • अच्छी और स्वादिष्ट चीज के लालच में पेट को अत्यधिक न भरें।
  • अपनी इंद्रियों-गंध तथा स्वाद–के दबाव में न खाएँ।
  • धीरे-धीरे तथा खूब चबाकर भोजन करें।
  • मट्ठा के साथ 5 से 10 ग्राम की मात्रा में त्रिफला लें।
  • यदि समय अधिक निकल जाए तो भोजन न करना ज्यादा अच्छा है।
  • भोजन के साथ पानी न पीएँ। आधे घंटे पहले और एक घंटे बाद पीएँ।
  • अनियमित भोजन तथा उपवास के कारण ओजोक्षय, यानी ओजस का नाश होता है। अच्छा सात्त्विक आहार, शुद्ध शाकाहारी भोजन ओजस उत्पन्न करने के लिए सर्वोत्तम होता है।
  • आयुर्वेद के अनुसार भोजन ओजस विहीन खाद्य पदार्थ ये हैं : अंडा, भारी और गरिष्ठ भोजन, तैलीय भोजन, मांस, चिकन, मछली, पनीर, अधिक नमक तथा खट्टा भोजन, बासी भोजन, डिब्बाबंद खाना, फ्रोजन खाद्य पदार्थ।
  • फ्रिज में रखा गया भोजन ओजस उत्पन्न करने के लिए लाभदायक नहीं होगा।
  • धूम्रपान, शराब, ब्राउन शुगर, पेथिडाइन आदि नशीली चीजों का सेवन बिलकुल नहीं करना चाहिए, यह ओजस के उत्पादन के लिए हानिकर होता है।
  • आयुर्वेद के अनुसार भोजन जल तथा वायु प्रदूषण तामसिक वातावरण को जन्म देते हैं, जो ओजस के लिए बिलकुल अच्छा नहीं है। ठंडा तथा भारी भोजन कफ को उत्तेजित करके अमा पैदा करता है, जो ओजस के लिए अच्छा नहीं होता।

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