श्रृंगार शब्द का प्रयोग सामान्यतः वस्त्राभूषण आदि से शरीर को सुसज्जित करने के अर्थ में लिया जाता है | और सोलह श्रृंगार के अंतर्गत शरीर की स्वच्छता व चमक (कांति) से लेकर नख- शिख श्रृंगार एवं मुस्कान और अदाओं का मिलाजुला संयोजन माना जाता है।
सोलह श्रृंगार के नाम = 1 .मेहंदी . 2. उबटन, 3. स्नान, 4. अंगराग या विलेपन, 5. वेशभूषा या वस्त्र, 6. केश रचना, 7. पुष्प सज्जा व मांग सजाना, 8. बिंदी व अंजन, 10. लाली, 11. तेल मालिश, 12. महावर, 13. इत्र, 14. आभूषण, 15. मुस्कान, 16. आरसी-दर्पण।

मेहंदी
- हरी पत्तियां और रचाई गई लाल-लाल मेहंदी , दुल्हन की ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा देता है |
- परंपरागत सौंदर्य प्रसाधनों में मेहंदी का स्थान अग्रणी है। इसका प्रचलन लगभग सारे दक्षिण एशिया में है |
- मेहंदी रचे हाथों के अनुपम सौंदर्य का उल्लेख मिलता है, इसकी गिनती न केवल सोलह श्रृंगार में की जाती है, बल्कि चौंसठ कलाओं में भी इसका समावेश है। इसे ‘हिना” भी कहा जाता है।
उबटन
- दुल्हन के सौंदर्य, खिले-खिले रूप एवं कंचन-सी निखरी काया के लिए आज भी मालिश के बाद उबटन लगाने की सलाह दी जाती है। इसके बाद साबुन के प्रयोग की भी जरूरत नहीं रह जाती।
- उबटन चाहे सूखे मेवे, केसर आदि जैसी महंगी सामग्री से बना हो या सस्ती सामग्री जैसे चना, बाजरा या गेहूं के आटे से बना हो, हमेशा उपयोगी सिद्ध होता है।
- उबटन के विकल्प में आज फेशियल काफी प्रचलित है। इस प्रक्रिया से भी त्वचा में निखार आता है, दूसरे फेशियल प्रक्रिया केवल चेहरे तक ही सीमित रहती है।
- विवाह के अवसर पर अब भी दुल्हन को कई दिन पहले से ही उबटन लगाया जाता है। पुराने समय से उबटन एक ऐसा प्रसाधन है जो आज भी सौंदर्य के क्षेत्र में अपनी जगह बनाए हुए है।
स्नान
- सोलह श्रृंगार में स्नान को सौंदर्य का अभिन्न अंग माना गया है। उबटन के बाद स्नान क्रिया की जाती है, ताकि त्वचा साफ व स्वच्छ हो जाए।
- तन-मन की स्फूर्ति व ताजगी के लिए स्नान एक सस्ता व सौंदर्य टॉनिक है।
विलेपन और अंगराग
- स्नान से पूर्व और कभी स्नान के साथ विलेपन की प्रथा थी, विलेपनों में चंदन का प्रमुख स्थान था। चंदन एवं अन्य लेपों द्वारा शरीर को स्वच्छ व सुवासित किया जाता था। सुगंधित मिट्टी (मुल्तानी मिट्टी) का भी प्रयोग किया जाता था। इनमें पंखुड़ियां पीसकर मिलाई जाती थीं।
- उस समय साबुन का युग नहीं था, अत: लेप लगाकर उसे रगड़ते हुए स्नान किया जाता था, तत्पश्चात शरीर पर सुगंधित वस्तुओं से बना ‘अंगराग’ लगाया जाता था।
- यह ऋतु के अनुसार बदलता रहता था। सर्दियों में कस्तूरी, केसर और अगरु लेप का उपयोग किया जाता था और गर्मियों में चंदन व कपूर की प्रधानता होती थी। इसके द्वारा शरीर पर पक्षियों के जोड़े, युगल मूर्ति में बनाए जाते थे।
- ठोड़ी व कपोल सजाने की परंपरा भी अंगराग के अंतर्गत आती है। लेकिन आज श्रृंगार में अंगराग का स्थान खत्म हो चुका ठोड़ी पर काला तिल बनाने की कला अभी भी जीवित है। जाने कैसे करे दुल्हन का मेकअप आसानी से |
वस्त्र
वेशभूषा को सोलह श्रृंगार में सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है । शादी के जोड़े से जुड़े हुए परम्परागत रीती रिवाजो के अनुसार लाल या महरून रंग का लहंगा या साडी ही शुभ माना जाता है ।
केश रचना
- प्राचीन काल से ही महिलाएं केश विन्यास को अपने श्रृंगार में प्रधानता देती रही हैं, इसलिए परम्परागत सोलह श्रृंगार में बालों की भूमिका अहम् हो जाती है। यह भी पढ़ें – हाथों- पैरों की खूबसूरती बढ़ाने के लिए घर पर पेडीक्योर और मैनीक्योर करने की विधि |
- हेयर स्टाइल कैसा भी हो, दुल्हन की केश रचना उसके व्यक्तित्व के अनुरूप होनी चाहिए। केश रचना के बाद बालों को सुसज्जित किया जाता है।
पुष्प सज्जा
- दुल्हन संपन्न घराने की हो या साधारण परिवार की, फूलों के बिना उसका श्रृंगार अधूरा रह जाता है।
- पुष्प द्वारा केशों को सजाना सोलह श्रृंगार की भारतीय परंपरा का एक अंग है। फूलों की सजावट के दौरान दो शैलियां अधिक लोकप्रिय थीं। एक, जूड़े में गजरा बांधना और दूसरा, चोटी में वेणी लगाना।
- कभी-कभी लड़ियों का गुच्छा बनाकर खुले बालों पर लगाया जाता है |
- पुष्प सज्जा के लिए उन्हीं फूलों को चुना जाता है जिनकी भीनी सुगंध तन-मन को उल्लसित व सुवासित करती रहे। चम्पा, चमेली, मोगरा, जूही, केतकी, रजनीगंधा, गुलाब आदि फूल ज्यादातर प्रयोग किये जाते है |
बिंदिया
- बिंदी भारतीय संस्कृति के पारम्परिक कलात्मक श्रृंगार की पहचान है। इसका प्रयोग सदियों पुराना है।
- सिंदूर बिंदी (रोली) या चंदन की बिंदिया तथा केसर आदि का टीका लगाते हुए किया जाता है।
- भारत के अनेक प्रांतों में बिंदी केवल श्रृंगार प्रसाधन न होकर सुहाग का प्रतीक भी मानी गई है। दक्षिण भारत में रोली व कुंकुम की बिंदी का प्रचलन है, बंगाल में सिंदूर की बिंदी शुभ मानी जाती है, वैसे ज्यादातर बिंदिया गोल अथवा तिलक के आकार की ही लगाई जाती हैं |
अंजन (काजल)
- आंखें हमारी भावनाओं का आईना हैं। जो बात जुबां पर नहीं आ पाती उसे आंखें बयां कर देती हैं।
- सुरमा, काजल या अंजन द्वारा आँखों को आकर्षक बनाने का चलन बहुत पुराना है। हमेशा से ही काजल नारी प्रसाधन का अंग रहा है, और आज भी काजल श्रृंगार का प्रमुख अंग है। यह भी जरुर पढ़ें- दुल्हन मेकअप करने की विधि: पार्ट -2
लाली
- श्रृंगार या सुंदरता का जिक्र होते ही आंखों के सामने उभरता है आकर्षक ऑंखें और खूबसूरत होंठ।
- आंखें यदि मन का आईना हैं तो होंठों को मन की सांकेतिक भाषा कहा जा सकता है।
- होंठो या अधरों की सुंदरता बढाने के लिए उन्हें कई रंगो से रंगा जाता हैं आजकल लिपस्टिक का प्रचलन है |
तेल मालिश
- तेल मालिश को सोलह श्रृंगार में से एक माना गया है। मालिश से शरीर की कांति बढ़ती है। त्वचा का रख-रखाव हर मौसम में जरूरी है। त्वचा में रक्त और नमी का संतुलन बनाए रखने के लिए मालिश की जाती है।
- पुराने समय में मालिश के लिए बादाम या चंदन का तेल उपयोग में लाया जाता था। आज ज्यादातर लोग ऑलिव ऑयल पसंद करते हैं।
- तेल को कुनकुना गरम करके नववधू की मालिश 15 दिन पहले से ही शुरू कर दी जाती है। इसरो त्वचा स्निग्ध व कोमल हो जाती है।
महावर
- श्रृंगार प्रसाधनों तथा सुहाग चिन्हों में पैरों के श्रृंगार का एक खास स्थान है। जब पैर महावर से सजे हुए हों तो पैरों की खूबसूरती देखते ही बनती है |
- पैरों को मेहंदी और महावर से सजाया जाता है। महावर एक प्रकार की लाख से बना लाल रंग का द्रव्य होता है। महावर से पैरों पर बेलबूटे या पत्तियों की आकृति बनाई जाती थी। अंगूठे पर तिलक लगाया जाता है ।
इत्र
- श्रृंगार के साथ सुगंध का एक अभिन्न रिश्ता है जो आदिकाल से चला आ रहा है। शरीर की सजाने-संवारने के प्रत्येक प्रसाधन में खुशबू का समावेश किया जाता था।
- खुशबू के लिए केसर, कस्तूरी व चंदन महत्वपूर्ण थे। स्नान के जल में पुष्प पंखुड़ियां डाली जाती थीं। महकती कलियों से सिर का श्रृंगार की प्रथा रही है।
- आरसी में बारीक छिद्र होते हैं, अत: इत्र (परफ्यूम) की महक आसपास के वातावरण को सुगंधित करती रहती थी। इत्र के लिए गुलाब, रात की रानी, जूही व बेला का अर्क लोकप्रिय था।
आभूषण
- गहनों का प्रयोग भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के युग से चला आ रहा है।
- पहले-पहल आभूषणों को दो वर्गों में विभाजित किया गया था।
- भारत के नाट्यशास्त्र में चार प्रकार के अलंकारों का उल्लेख मिलता है।
- आवे यम : जो छिद्र द्वारा पहने जाते हैं, जैसे कर्णफूल, बाली, झुमके, नथ आदि।
- बंधनीचम : जो बांधकर पहने जाते थे। बाजूबंद, पहुंची आदि।
- प्रक्षेप्य : जिसमें अंग डालकर पहना जाए, जैसे कंगन, मुंदरी, पायल आदि।
- आरोप्य : जो किसी अंग में लटकाकर पहना जाए। इस श्रेणी में कठहार, करधनी, चंपाकली आदि हैं। विभिन्न कालों में आभूषणों की संख्या घटती-बढ़ती रही। मध्यकाल में बारह आभूषण श्रृंगार की परंपरा बन गए थे |
आरसी व दर्पण
- यह प्रत्यक्ष श्रृंगार प्रसाधन न होकर सहायक वस्तुओं में गिना जाता है, किंतु सोलह श्रृंगार परंपरा का आवश्यक अंग माना गया है।
- दर्पण की आवश्यकता अनुभव करके ही पहले स्त्रियों के हाथ में आरसी पहनाने का प्रचलन बढ़ा। आरसी एक प्रकार की अंगूठी ही होती है, इसे दाएं हाथ के अंगूठे में पहना जाता है। छोटी-सी बंद डिब्बी होती है, जिसमें चारों तरफ छोटे-छोटे छेद होते हैं और ऊपर दर्पण जड़ा होता है।
- आज भी राजस्थान में विवाह के समय आरसी एक जरूरी आभूषण है। मंडप में बैठी दुल्हन इसमें अपने चेहरे का प्रतिबिंब देख सकती है।
मुस्कान
- नारी सौंदर्य पर एक मीठी सी मुस्कान का बहुत महत्तव होता है। मुस्कुराते हुए चेहरे से नारी का आकर्षण दोगुना हो जाता है |
- यही कारण है कि मुस्कान को सारे प्रसाधनों से बढ़कर माना गया है। अधिकांश पुराने लेखो और कविताओ में इसे अंतिम श्रृंगार के रूप में माना है।
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