फाइलेरिया रोग क्या है ? कारण, लक्षण और बचाव की जानकारी

फाइलेरिया रोग कैसे होता है ?- फाइलेरिया (हाथीपाँव) रोग कृमियों द्वारा होता है। यह रोग प्रमुख रूप से मच्छरों की क्यूलेक्स प्रजाति द्वारा फैलाया जाता है। माइक्रोफाइलेरिया के रूप में कृमि मनुष्य के रक्त में घूमता रहता है। जब मच्छर खून चूसता है तो यह मच्छर में पहुँच जाता है। फिर यही मच्छर मनुष्यों में रोग पहुँचाता है।

फाइलेरिया विशेष रूप से अफ्रीका, एशिया और पश्चिमी अमेरिका में पाया जाता है। भारत में भी यह प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। यह बीमारी लगभग पूरे भारतवर्ष में होती है। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, तमिलनाडु, केरल तथा गुजरात में ज्यादातर होती है। ऐसा माना जाता है कि लगभग दो करोड़ व्यक्तियों में यह बीमारी किसी-न-किसी रूप में मौजूद है तथा प्रतिवर्ष साठ लाख नए रोगी इस रोग से ग्रस्त होते हैं। यह रोग उन स्थानों के निवासियों में ज्यादा होता है, जिन स्थानों में पानी का प्रभाव ज्यादा हो, जहां वर्षा ज्यादा समय तक ज्यादा मात्रा में होती हो, नमी ज्यादा रहती हो, जहां के जलाशय गंदे हों। अधिकतर मामलों में इस रोग के लक्षणों का प्रारंभिक अवस्था में पता नहीं चल पाता है, जिससे इलाज में मुश्किल हो सकती है।

फाइलेरिया कृमि

फाइलेरिया कृमि आँतों में न रहकर खून में रहते हैं और ये केवल रात में ही खून में सूक्ष्मदर्शी यंत्र के माध्यम से दिखते हैं। यही कारण है कि रोगी की जाँच के लिए रक्त रात को 12 बजे के बाद लिया जाता है। प्रौढ़ कृमि कुछ मिलीमीटर से लेकर चार सेंटीमीटर तक लंबे हो सकते हैं। मादा बड़ी और नर छोटे होते हैं। ये कृमि मनुष्य के लसिका तंत्र में रहकर माइक्रो फाइलेरिया नामक शिशुओं को उत्पन्न करते हैं, जिन्हें पैथालॉजी की जाँच में सूक्ष्मदर्शी द्वारा रक्त में देखा जाता है। जीवनचक्र – इन कृमियों का जीवनचक्र मनुष्य और मच्छरों में व्यतीत होता है। एक मादा कृमि 50,000 माइक्रोफाइलेरिया (शिशु कृमि) उत्पन्न करती है, जो लसिका वाहिकाओं द्वारा रक्त में पहुँच जाते हैं। वयस्क कृमि 15 वर्ष तक जिंदा रह सकते हैं। मनुष्य इस कृमि का होस्ट अर्थात् मेजबान होता है और कृमि अपना पोषण भी इसी में ग्रहण करते हैं।

फाइलेरिया रोग के लक्षण, कारण

फाइलेरिया रोग क्या है ? कारण, लक्षण और बचाव की जानकारी filaria ke lakshan karan bachav upchar
फाइलेरिया रोग
  • इस रोग के लक्षण मिलने में 8 से 16 महीने तक का समय लग जाता है और बहुत से रोगियों में ऊपरी तौर पर कोई लक्षण नहीं मिलते हैं। जबकि उनके रक्त में माइक्रोफाइलेरिया होता है। लेकिन कुछ रोगियों में कृमियों के लसिका तंत्र में प्रवेश के कारण कई तकलीफदेह लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, इस स्थिति को लिंफेटिक फाइलेरियासिस कहते हैं। इसके लक्षण निम्न हैं :-
  • रोग के शुरू होने के बाद पहले वर्ष रोगी की लसिका ग्रंथियों (विशेषकर जाँघ की ग्रंथियों) में सूजन आती है तथा अंडकोषों में भी सूजन आ जाती है। रोगी को बुखार एवं दर्द की शिकायत होती है। पेशाब करने में भी तकलीफ हो सकती है |
  • रोग की दूसरी अवस्था—यह 10 से 15 वर्ष बाद आती है। इसमें लसिका वाहिनियों में रुकावट होने से अंगों में स्थायी सूजन आने लगती है और ये अंग बेडौल हो जाते हैं। जैसे-अंडकोष में स्थायी सूजन जिसे हाइड्रोसिल कहते हैं। या पैरों में स्थायी सूजन, जिसे हाथीपाँव कहते हैं। इनके अलावा हाथों, लिंग, योनि के बाहरी हिस्से तथा स्तनों में भी इस तरह की सूजन आ जाती है।

फाइलेरिया रोग पर नियंत्रण

फाइलेरिया पर दो प्रकार से नियंत्रण का प्रयास किया जा सकता है

  • दवाइयों द्वारा नियंत्रण-इसके लिए एकमात्र सुरक्षित और प्रभावी दवा डी.ई.सी. (डाइएथिल कारबामेजिन) है। यह दवा माइक्रोफाइलेरिया को नष्ट कर देती है। इस दवा को इलाज के लिए 12 दिन तक लेना होता है।
  • इस दवा के साइड इफ़ेक्ट -दवा लेने के बाद उलटी, सिरदर्द, चक्कर आना जैसी शिकायतें हो सकती हैं, लेकिन तीन दिनों बाद ये अपने आप ही ठीक हो जाती हैं।
  • बड़े पैमाने पर दवा देना-ऐसे क्षेत्रों में जहाँ फाइलेरिया रोग अकसर होता है, वहाँ की पूरी आबादी को दवा (डी.ई.सी.) खिलाई जाती है। इससे रोग के फैलने पर रोक लगती है। लेकिन कई बार पूरी आबादी को दवाई खिलाना संभव नहीं होता है, अतः ऐसे रोगियों को ही दवा खिलाते हैं जिनमें रक्त की जाँच के दौरान माइक्रोफाइलेरिया पाए जाते हैं। यह तरीका अपने देश में भी अपनाया गया है। इसे मांस ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (D.A.) कहते हैं।
  • दवा (डी.ई.सी.) मिलाया हुआ नमक का प्रयोग– ऐसे क्षेत्रों में जहाँ फाइलेरिया रोग बड़ी मात्रा में फैलता है, लोगों को डी.ई.सी. की कम मात्रा युक्त नमक को उपयोग में लाने की सलाह दी जाती है। 1 किलो नमक में 4 ग्राम तक दवाई की मात्रा मिलाकर ऐसा नमक तैयार किया जाता है। इसे 6 से 9 महीने तक खिलाते हैं। यह तरीका सस्ता और प्रभावशाली भी है। भारत के लक्षद्वीप में इसका प्रयोग किया गया और बेहतर परिणाम मिले हैं।
  • मच्छरों पर नियंत्रण- जैसा कि बताया गया है कि इस रोग का मुख्य कारक क्यूलेक्स मच्छर है। यदि उसके लार्वा को नष्ट करें और मच्छरों को दूर रखा जाए तो काफी हद तक इस रोग पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इसके लिए निम्न उपाय करते हैं :-
  • मच्छर के लार्वा को खत्म करना एवं प्रसार को रोकना- इसके लिए पानी एवं मल पदार्थों की निकासी की सही व्यवस्था की जानी चाहिए। अच्छा हो निकासी की व्यवस्था अंडरग्राउंड हो। लेकिन यह बहुत महँगा कार्य है। अतः भारत जैसे देश में फिलहाल तो लार्वा खत्म करनेवाली दवाई, जिसे एम.एल.ओ. (मास्क्यूटो लार्वा साइडल ऑयल) कहते हैं, का प्रयोग किया जाता है। लेकिन यह महँगा होने से अब इसकी जगह पायरेथ्रम तेल का उपयोग करते हैं। एक और तेल पायरोसीन का 1 से 0.2 प्रतिशत घोल प्रभावशाली होता है। आर्गेनोफास्फोरस कांपाउंड वाले कीटनाशक, जैसे-टेमेफास और फेंथिआन का उपयोग भी इसके लिए करते हैं। लेकिन अब मच्छरों की प्रजातियों ने कई रसायनों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर ली है। अतः रसायनों का उपयोग प्रति सप्ताह करने की सलाह दी जाती है।
  • पानी के टैंकों का पानी बदलना– रुके हुए पानी में भी पायरोसीन तेल डालना तथा उपयोग के टेंकों का पानी एक सप्ताह में बदलने से भी क्यूलेक्स मच्छरों के लार्वा पर रोक लगती है।
  • वयस्क मच्छरों पर नियंत्रण-अब डी.डी.टी. जैसे कीटनाशक फाइलेरिया के मच्छरों पर असर नहीं दिखलाते। इसलिए मच्छरदानियों का उपयोग ही सबसे अच्छा रहता है। आजकल दवायुक्त मच्छरदानियाँ उपलब्ध हैं, जो अत्यंत उपयोगी होती हैं। मच्छर भगानेवाले साधनों, जैसे-धुआँवाली क्वाइल या नीम की पत्तियाँ या तेल का उपयोग भी मच्छरों से दूर रखने के लिए किया जा सकता है। लेकिन कृत्रिम रूप से बनाई गई धुएँ देनेवाली वस्तुएँ हानिकारक कीटनाशकों से युक्त होती हैं, जिनका ज्यादा उपयोग शरीर को नुकसान भी पहुँचा सकता है। इसलिए मच्छरों को भगाने के लिए पुराने एवं प्राकृतिक साधनों का उपयोग ज्यादा सुरक्षित होता है।

फीलपाँव (श्लीपद अथवा हाथीपाँव)

  • यह एक प्रकार के कृमियों द्वारा पैदा की जाने वाली छूत की बीमारी है, जो शरीर की लसिका संबंधी प्रणाली पर प्रभाव डालती है। यह रोग एक विशेष प्रकार के मच्छर द्वारा फैलाया जाता है। मच्छर रोगी व्यक्ति का खून चूसते समय इन कृमियों को भी चूस लेता है। और उसके बाद वह मच्छर जिस व्यक्ति को भी काटता है, उसमें उन कृमियों को छोड़ देता है।

फीलपाँव के लक्षण

  • बुखार, कँपकँपी व सर्दी।
  • त्वचा पर उभरे हुए पीडादायक चकत्ते विशेष रूप से बाँहों और टाँगों पर।
  • अधिकतर मामलों में प्रभावित हिस्से की त्वचा ज्यादा शुष्क और मोटी हो जाती है। उचित रक्त प्रवाह के कारण प्रभावित हिस्से पर कई बार फोड़े, धब्बे और त्वचा काली भी हो जाती है।
  • शरीर के नीचेवाले हिस्सों में सूजन।
  • लसिका गाँठे बड़ी हो जाती हैं। लसिका शिराएँ सूजन के साथ ही टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं और उनमें दर्द होता है।
  • प्रभावित अंग स्थायी रूप से बढ़ जाते हैं, जैसे कि टाँगें, अंडकोष और शिश्न (जननेंद्रीय) आदि।

फीलपाँव रोग का इलाज

  • हेट्राजॉन की गोलियाँ लें।
  • बुखार और पीड़ा का प्रभाव कम करने के लिए एस्प्रीन लें।
  • टाँगों पर सूजन को कम करने के लिए इलास्टिक-पट्टियाँ बाँधे। यह टाँगों की स्थायी सूजन को भी रोकेगी। ध्यान रहे कि रात को सोते समय इन पट्टियों को जरूर खोल दें एवं सूजन वाले स्थान की सफाई रखें तथा चोट से बचाएँ।

फीलपाँव रोग से बचाव

  • माइक्रोफ्लेरिया रात के समय खून में जारी होता है इसलिए सतर्क रहें|
  • वे सभी सावधानियाँ बरतें, जो मलेरिया की बीमारी से बचने में बरती जाती हैं।

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