शिशु में निमोनिया के संकेत, लक्षण, कारण, बचाव तथा आधुनिक उपचार

निमोनिया क्या है ? – यह फेफड़े की बीमारी है, जो वायरस या बैक्टीरिया के संक्रमण से पैदा होती है। इसमें फेफड़े के किसी एक या अधिक भाग की कोशिकाएं सूज जाती हैं और पानी से भर जाती हैं। ऐसा होने पर ये सांस-प्रक्रिया में बाधा पैदा हो जाती है | निमोनिया के होने पर बैक्टीरिया की संख्या फेफड़े में तेजी से बढ़ती जाती है, जिससे बुखार आ जाता है, छाती में दर्द हो सकता है और खाँसी उठने लगती है। ऐंटिबायटिक दवाओं से यह रोग जल्द नियंत्रण में आ जाता है, पर इलाज में देर हो जाए तो हालत गंभीर भी हो सकती है।

बच्चों में साँस से जुड़े रोग होना बहुत सामान्य सी बात हैं, लेकिन यदि ध्यान न दिया जाए तो निमोनिया जैसे संक्रमण की बीमारी भी हो सकती है। भारत में शिशुओं की बढ़ी हुई मृत्यु दर में निमोनिया जैसे रोगों की प्रमुख भूमिका है। इसलिए आम लोगों को भी इन खतरनाक रोगों की जानकारी होना जरूरी है।

निमोनिया के कारण

शिशु में निमोनिया के संकेत, लक्षण, कारण, बचाव तथा आधुनिक उपचार Pneumonia lakshan karan bachav ilaj
निमोनिया
  • ज्यादातर मामलों में रोग की शुरुआत साधारण सर्दी-जुकाम, गला खराब होने से होती है। मुँह, नाक, गले में पैठ करने वाले वायरस या बैक्टीरिया मौका पाते ही सांस-नलियों और फेफड़ो को संक्रमित कर देते हैं |
  • कुछ मामलों में संक्रमण सीधा हवा से आए वायरस और बैक्टीरिया से भी हो जाता है, और कुछ में शरीर के अन्य किसी अंग से खून के रास्ते रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया फेफड़े में पहुँच जाते हैं।
  • यह रोग कई तरह के जीवाणुओं और विषाणुओं (Viruses) द्वारा फैलता है। इनमें प्रमुख हैं-स्ट्रेप्टो काकस न्यूमोनि, जो निमोनिया के होने  का कारण बनता है। इसी तरह बारडेटेला परट्यूसिस कुकरखाँसी उत्पन्न करता है। इसी तरह कार्नी बेक्टीरियम डिफ्थीरी भी है जो गलघोंटू नामक खतरनाक बीमारी का कारण बनता है।
  • कई अन्य वाइरस भी सांस के रोग उत्पन्न करते हैं, जैसे-एडीनो वाइरस फेफड़ों का संक्रमण और गले की सूजन उत्पन्न करता है। मीसल्स वाइरस छोटे बच्चों में शरीर में फैंसियों के साथ सांस संबंधी तकलीफें पैदा करता है। सिन साइटियल (Syncytial) नामक रोगाणु शिशुओं और छोटे बच्चों में फेफड़ों की सांस नलिकाओं में सूजन और गंभीर किस्म का निमोनिया पैदा करता है। यदि इलाज न दिया जाए तो निमोनिया अकसर बच्चों में जानलेवा साबित होता है।
  • इन सभी रोगों में सांस क्रिया की दर बढ़ जाती है और सांस में रुकावटें उत्पन्न होती हैं। इस कारण रोगी की जान जाने का खतरा उत्पन्न हो जाता है।
  • संक्रमण के कारक (Factors)- संक्रमण कम उम्र के शिशुओं में अधिक होते हैं। कुपोषित एवं सामान्य से कम वजन के बच्चों या शिशुओं में भी संक्रमण अधिक होता है। अकसर तीन वर्ष से कम उम्र के बच्चे इन रोगों के ज्यादा शिकार बनते हैं।
  • निमोनिया जैसे रोगों को बढ़ावा देनेवाले कुछ कारक (Risk Factors) और भी होते हैं, जैसे- भीड़ भरे गंदे स्थानों में रहना, संतुलित और पौष्टिक भोजन का अभाव, नवजात शिशु का वजन कम होना, प्रदूषित वातावरण के अलावा माँ यदि धुम्रपान करती है तो बच्चे को सांस संस्थान के संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। नई खोजों के अनुसार वातानुकूलित (एअरकंडीशंड) रूम में अधिक समय रहने से भी सांस संबंधी रोगों की संभावना बढ़ती है।
  • अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्ति प्रायः निमोनिया के संक्रमणों के घेरे में कम ही आते है, पर शरीर जरा कमजोर हुआ नहीं कि यह संक्रमण निमोनिया में बदल जाता है। यह कमजोरी कई प्रकार की हो सकती है। बिगड़ी हुई डायबिटीज, कुपोषण, रक्त की कमी, गुर्दो की खराबी, लंबे समय से चली रही कोई बीमारी, हाल में हुआ ऑपरेशन, कैंसर के लिए दी जा रही दवाएँ, एच.आई.वी. संक्रमण आदि बहुत सी स्थितियाँ हैं जिनमें शरीर की रोग-बचाव ताकत कम हो जाती है और निमोनिया के बैक्टीरिया-वायरस को पैर जमाने का मौका मिल जाता है।
  • क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस होने पर या धूम्रपान की आदत होने पर भी साँस-नलियों की रोग-बचाव ताकत कमजोर हो जाती है। इसलिए क्रॉनिक ब्रोंकाइटिस के मरीजों और धूम्रपान करने वालों में निमोनिया के मामले अधिक होते हैं।

रोग के लक्षण-

  • अचानक ही ठंड देकर बुखार आता है। यह बुखार लगातार चढ़ा रहता है, बीच में कम नहीं होता। खाँसी होती है, जिसमें सफेद, पीला या हरा बलगम निकलता है। छाती में दर्द भी हो सकता है। साँस तेज गति से चलने लगती है।
  • छोटे बच्चों में निमोनिया के लक्षण खासकर देखने में आता है, ऐसी स्थिति में उनमें साँस-नलियों की सिकुड़न भी हो जाती है। इलाज जल्द शुरू न होने पर मरीज की हालत तेजी से बिगड़ती जाती है। उसमें बहुत अधिक कमजोरी आ जाती है, बुखार और तेज हो जाता है और छाती में भी दर्द बढ़ जाता है। कुछ मरीजों के बलगम में खून भी आ जाता है।
  • नाक बहना, खाँसी, गले में खराश, सांस लेने में कठिनाई एवं कान में दर्द जैसे लक्षण भी निमोनिया में दिखाई देते है।
  • कुछ बच्चों में सामान्य सर्दी के लक्षणों के बाद संक्रमण गंभीर रूप ले सकते हैं।

निमोनिया के गंभीर लक्षणों को कैसे पहचानें?

  • सांस क्रिया का निरीक्षण-एक मिनट में सांस की संख्या को घड़ी की मदद से गिनते हैं। दो महीने के शिशु में यदि सांस क्रिया की दर 60 या इससे अधिक है, उसे सामान्य से ज्यादा अथवा तीव्र माना जाएगा।
  • दो माह से 12 महीने के शिशु में यदि सांस दर 50 या इससे अधिक है तो उसे तीव्र समझा जाता है।
  • 1 से 5 वर्ष के बच्चे में यदि सांस क्रिया की दर 40 या अधिक है तो उसे तीव्र मानेंगे।
  • बच्चे की छाती यदि सांस अंदर लेने के दौरान भीतर खिंचती दिखे तो यह निमोनिया के लक्षणों में शामिल है।
  • जब बच्चा सांस छोड़ता है तो सांस में रुकावट के कारण सीटी की आवाज आती है।
  • माँ का दूध न पी सकना या कोई भी तरल पीने में असमर्थता |
  • झटके आना। यह भी जरुर पढ़ें – निमोनिया में क्या खाएं क्या ना खाएं -Pneumonia Diet
  • सांस में रुकावट और चेहरा नीला पड़ना। ऐसे शिशु या बच्चे को तुरंत अस्पताल में भरती करना चाहिए।
  • देखें कि बच्चे का शरीर ज्यादा गरम तो नहीं है अर्थात् उसे बुखार तो नहीं है।
  • इन सभी लक्षणों वाले शिशु या बच्चे को तुरंत डॉक्टर को दिखाकर इलाज लेना चाहिए, क्योंकि शिशुओं में विशेषकर दो महीने से कम के शिशु में निमोनिया अत्यंत खतरनाक हो सकता है।
  • निमोनिया रोग की पुष्टि, रोगी के लक्षण, शारीरिक जाँच तथा छाती के एक्स-रे से की जाती है। इसमें निमोनिया के टाइप का भी अंदाजा लग जाता है। फिर भी खून और बलगम की जाँच कराने से स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है।

निमोनिया का आधुनिक इलाज

  • आधुनिक ऐंटिबॉयटिक युग में निमोनिया का इलाज मुश्किल नहीं है। इसलिए इस बीमारी का खतरा पहले से बहुत कम हो गया है और पूरे इलाज से अधिकतर रोगियों का जीवन बचाया जा सकता है। हालांकि बच्चों में जरा सी असावधानी से बात बिगड़ते देर नहीं लगती।
  • निमोनिया के उपचार का मुख्य आधार ऐंटिबॉयटिक होते हैं। इनका चुनाव संभावित या जाँच के आधार पर सिद्ध हो चुके संक्रमण के हिसाब से किया जाता है। संक्रमण को जल्दी ठीक करने के लिए कई मामलों में ऐंटिबॉयटिक नस से टीके के जरिए दिये जाते हैं।
  • रोग के इलाज के लिए रोग प्रतिरोधक दवाएँ जैसे-सल्फा मेथाक्सेजोल और ट्राइमेथोप्रिम की गोलियाँ अथवा सीरप (पीने की दवा) देते हैं। इसे डॉक्टर की सलाह पर तुरंत शुरू कर सकते हैं।
  • दिन में दो बार कई चिकित्सक एंपीसिलिन या एमाक्सीलिन भी उपयोग करते हैं, लेकिन कोट्राइयोक्साल दवा ज्यादा उपयोग की जाती है। इसे 5 दिन तक देना चाहिए। एक-दो दिन में स्थिति नहीं सुधरती तो बच्चे को अस्पताल में भरती करना ठीक रहता है। दो महीने से छोटे शिशुओं को कोटाइयोक्साल की जगह बेंजिल पेनिसिलिन या एंपीसिलिन दी जाती है।
  • बुखार उतारने के लिए दवा दी जाती है। जैसे पेरासिटामोल या निमूलिड। साँस की नलियों में सिकुड़न होती है तो उसे दूर करने के लिए ब्रोंकोडाइलेटर दवा देते हैं। ऑक्सीजन भी दी जाती है। जब तक हालत नहीं सुधरती, नस से ग्लुकोस भी दिया जाता है ताकि शरीर को पानी और पोषण मिलता रहे।
  • आम तौर से निमोनिया के उपचार प्रयोग की जाने वाली ऐंटिबॉयटिक का असर चौबीस से बहत्तर घंटों में दिखने लगता है। बुखार कम होते ही स्थिति में सुधार आना शुरू हो जाता है। लेकिन ऐंटिबॉयटिक दवा की डोज में जरा भी असावधानी नहीं बरतनी होती। यह दवा दस से चौदह दिन तक चलती है।
  • छाती में दर्द हो तो उसे दूर करने के लिए गर्म पानी की बोतल का सेंक और पेन किलर दवा लेना आराम दिलाता है।
  • खाँसी से छाती में तकलीफ महसूस हो सकती है। पर उसे दबाने की कोशिश करना गलत है। जितना बलगम निकल सके, उतना ही अच्छा है। जिस समय खाँसी उठे, उस समय मरीज की देखभाल कर रहा व्यक्ति यदि हाथ से उसकी छाती को सहलाकर सहारा दे सके तो इससे मरीज को राहत पहुँचती है। दर्द कम होता है।
  • ज्यादातर मामलों में सात से दस दिनों में निमोनिया के रोग से छुटकारा मिल जाता है और रोगी पहले से काफी स्वस्थ अनुभव करने लगता है।
  • जिन मामलों में निमोनिया दूसरे किसी रोग की वजह से पैदा होता है, उनमें उस रोग का सही इलाज होना भी बहुत जरूरी होता है।
  • निमोनिया से बचाव या सुरक्षा के लिए बच्चों को स्वच्छ वातावरण में रखना, जहाँ प्रदूषित हवा, धूल या धुआँ न हो।
  • पर्याप्त संतुलित आहार देना, क्योंकि कुपोषण भी ऐसे रोगों की जड़ है।
  • बच्चों को समय से डी.पी.टी. और मीजल्स (खसरा) के टीके लगवाना भी बचाव का प्रमुख उपाय है।

क्या निमोनिया के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होना जरूरी है ?

  • यह मरीज की हालत पर निर्भर करता है। कम गंभीर मामलों में घर पर नियम से दवा देकर भी रोग का इलाज हो सकता है।

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